अन्त नि होय कोई आपना

अन्त नी होय कोई आपणा,
समझी लेवो रे मना भाई
आप निरंजन निरगुणा हारे सगुण तट ठाढा
यही रे माया के फंद में
नर आण लुभाणा
कोट कठिन गड़ चैढ़ना,
दुर है रे पयाला
घड़ियाल बाजत पहेर का
दुर देश को जाणा
कल युग का है रयणाँ,
कोई से भेद नी कहेणा
झिलमील झिलमील देखणा
मुख में शब्द को जपणा
भवसागर को तैर के,
किस विधी पार उतरणा
नाव खड़ी रे केवट नही
अटकी रहयो रे निदाना
माया का भ्रम नही भुलणा,
ठगी जासे दिवाणा
कहेत कबीर धर्मराज से
पहिचाणो ठिकाणाँ

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